इन विदेशी मेहमानों से सीखिए जीवन का असली संघर्ष:हजारों मील का सफर तय करके 4 महीने के लिए हस्तिनापुर वेटलेंड में आते हैं दूसरे देशों के परिंदे

जीवन जीने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है, ये हस्तिनापुर के वेटलेंड में आए इन विदेशी परिंदों से सीखा जा सकता है। जब उत्तरी गोर्लाद्ध्​​​​​ में बर्फबारी के चलते टेंपरेचर माइनस 50 से नीचे चला जाता है तो वहां रहने वाले परिंदों के जीवन पर संकट आ जाता है। न घर बचता है। न खाने के लिए दाना-पानी। ऐसे में उनके सामने बस एक ही विकल्प बचता है। या तो वहीं रहकर जान गंवा दें या फिर जीवन बचाने के लिए निकल पड़े हजारों मील के सफर पर…। ऐसे में बर्फबारी शुरू होते ही ये परिंदे दूसरे देशों का रुख करते हैं। 40 फीसदी परिंदे हजारों किलोमीटर के लंबे सफर के दौरान दम तोड़ देते हैं। जो संघर्ष करते रहते हैं वे भारत के तमाम इलाकों में आ जाते हैं। मेरठ के हस्तिनापुर में आए ऐसे ही हजारों प्रवासी पक्षियों ने 4 महीने के लिए यहां के वेटलैंड को अपना आशियाना बना लिया है। इन परिंदों की क्या रहती है दिनचर्या, कितनी संख्या में ये विदेशी मेहमान हस्तिनापुर वेटलेंड में आ चुके हैं, इसको लेकर दैनिक भास्कर की टीम ग्राउंड पर पहुंची। पहले तस्वीरों में देखिए विदेशी मेहमानों की अठखेलियां आइए आपको ले चलते हैं हस्तिनापुर वेटलेंड मेरठ से 35 किलोमीटर दूर है ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर। यहां से 7 किलोमीटर दूर पड़ता है चेतावाला गंगा पुल। यहीं वैटलैंड के इलाके में 4 महीने के लिए विदेश मेहमान अपना आशियाना बनाते हैं। हस्तिनापुर से चेतावाला पुल वाली रोड बिजनौर के चांदपुर को जोड़ती है। यहां से बिजनौर की दूरी 50 किलोमीटर कम हो जाती है। लेकिन 3 साल से ये रोड बदहाल है। इसी रोड से हम चेतावाला गंगा पुल के पास भीकुंड वेटलैंड पहुंचे। शहर के शोरगुल से दूर यहां वैटलेंड के पास जाते ही अलग तरह की आवाजें सुनाई देनी शुरू हो गईं। ऐसी मीठी आवाजें जिनको सुनकर 42 किलोमीटर के सफर की सारी थकान दूर हो गई। मन प्रफुलित हो उठा। वेटलेंड के उस एरिया में पास पहुंचे तो परिंदों का आवाजों का रस कानों में ओर ज्यादा घुलता चला गया। वेटलैंड में झुंड में बैठे हजारों परिंदों का कलरव देखते बन रहा था। परिंदे उस वक्त आराम फरमा रहे थे। 2 घंटे तक शांत बैठे रहने के बाद फिर उनकी अठखेलियां शुरू हो गईं। परिंदे एक साथ झुंड में उड़ान भरने लगे। कभी नीचे आते तो कभी आसमान में उड़ान भरने लगते। उनका वी आकार में उड़ने का अंदाज इतना मनमोहक था कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। हजारों मील से आए परिंदों की अद्भुत कलाबाजी देखकर हर आने-जाने वाला यही बोल रहा था…वाह क्या नजारा है। कुछ देर अठखेलियां करने के बाद परिंदे फिर से आराम करने लगे। गंगा-यमुना का बेसिन भाता है रूस, मंगोलिया, साइबेरिया, यूरोप, अमेरिका, कनाडा और उत्तरी गोलार्ध में जब अक्तूबर महीने में बर्फबारी होती है तो वहां से 90 फीसदी परिंदें घर, वनस्पतियों या कीटों के खत्म होने के कारण दूसरे देशों का रुख करते हैं। भारत में इस वक्त नदी-जलाशय भरे रहते हैं। हरियाली होती है। ऐसे मौसम में इन परिंदों को यहां वो सबकुछ मिलता है जो इन्हें चाहिए होता है। वैसे तो ये भारत के कई राज्यों में आते हैं, लेकिन इनको ब्रह्मपुत्र, यमुना और गंगा नदी का बेसिन सबसे ज्यादा भाता है। इसके चलते गाजियाबाद, मेरठ, हस्तिनापुर सेंचुरी, ब्रजघाट और बिजनौर बैराज इलाके में अक्टूबर महीने के अंत में से पक्षी आने लगते हैं। सुबह-शाम को रहते हैं ज्यादा एक्टिव इन परिंदों के एक्टिव रहने का समय सुबह को सूरज निकलने और शाम को सूरज छिपने से पहले का होता है। इसी समय से अपना भोजन करते हैं। धूप तेज होने पर ये झुंड में एक साथ बैठकर सुस्ताने लगते हैं। रात को सोने के समय कुछ पक्षी पेड़ों पर तो कुछ झुरमुट में अपना आशियाना बनाते हैं। खाने में ये होता है पसंद, दलदली जमीन पर रहते इन पक्षियों को खाने में कीट पतंगे, मछली, झींगर, केंचुए पसंद होते हैं। कुछ पक्षी दूसरे जंतुओं का भी शिकार करते हैं। ये पक्षी ज्यादा पानी वाली जगहों और शुष्क जमीन को पसंद नहीं करते हैं। इनको दलदली जमीन और कम पानी बेहद रास आता है। इसीलिए ये वेटलेंड को पसंद करते हैं। इन प्रजाति के हैं पक्षी पिन टेल, गैडवाल, कॉमन टील, साइबेरियन स्टोनचेट, शावलर, व्हाइट ब्रेस्टेड किंगफिशर, स्पाटेड आउलेट, ब्रोंज विंग्ड जकाना, कॉमनमोरहेन, वैग्टेल, पाइड बुशचेट, ग्रे होरेन, परपल हेरोन, पेंटेड स्टार्क, ब्राहिंग डक, स्पिट बिल, ब्लैक विंक्ड स्टिल्ट, पाइड किंगफिशर, व्हाइट नेक स्टार्क, कोरमोरेंट, परपल मोरेन, बगुले की तीन प्रजाति समेत कई अन्य प्रजाति के 9 से 10 हजार पक्षी मौजूद हैं। 4 महीने तक रहने के बाद लौट जाते अपने वतन 70 से 80 प्रजाति वाले ये परिंदे मार्च के पहले सप्ताह तक यहीं रहते हैं और इसके बाद अपने वतन लौट जाते हैं। ठीक उन्हीं रास्तों से जहां से ये पक्षी इस मुल्क में आते हैं, वापसी के लिए उड़ान भर जाते हैं। इस दौरान अपने वतन पहुंचने तक भी बहुत से पक्षियों की मौत हो जाती है। 1845 में शुरू हुआ अध्ययन दूसरे देशों से परिंदों के भारत में आने का जिक्र वैदिक समय से है। बाइबिल में भी इसका जिक्र किया गया है, लेकिन इस पर अध्ययन सन 1845 से जर्मन साइंटिस्ट हैंदिंग गाडके ने शुरू किया। 50 वर्ष तक उन्होंने अटलांटिक सागर के हिग्वोलैंड आईलैंड पर रहकर 18 हजार मील की दूरी तय करके उत्तर ध्रुव से माइग्रेट करने वाले परिंदों पर रिसर्च की। 1890 में उन्होंने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की तो दुनियाभर के वैज्ञानिक चौंक गए। जिसके बाद परिदों पर तमाम रिसर्च हुए। रिंगिंग के बाद रूट जानने के लिए बर्ड में सेटेलाइट मिनी ट्रांसमीटर लगाए गए। जिससे जीपीएस के जरिए उनके रूट को मैप किया गया। आज बर्ड साइंटिस्ट डेटा लॉगर्स के जरिए इस पर काम कर रहे हैं। जिसमें सामने आया कि उत्तरी गोलार्ध में रहने वाले परिंदे अक्टूबर महीने से 4 महीने तक बाहर चलते जाते हैं। फरवरी-मार्च में फिर वापस लौट आते हैं। भारत में 40 साल पहले शुरू हुई बर्ड रिगिंग भारत में बर्ड रिगिंग की बात करें तो 40 साल पहले कनार्टक में एक रहस्मयी बीमारी से जानवर मरने लगे। लोगों में भी बीमारी फैलने लगी। वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तो पता लगा कि जंगल में कॉमन टील नाम की बर्ड विदेशों से आ रही थी। इस पर भारत के वैज्ञानिकों ने यूएस के वैज्ञानिकों को बुलाया तो उन्होंने बर्ड के पैर में रिंग डालकर उसकी ट्रैकिंग शुरू की। पता चला कि ये बर्ड रूस से आती है। रिसर्च के दौरान खुलासा हुआ कि वो बीमारी कॉमन टील के साथ नहीं आ रही थी। बल्कि वो जानवरों में वायरस की वजह से हो रही थी। कई देशों में पक्षियों के फ्लाइवेज हैं तय फ्लाइवेज बर्ड के अदृश्य आकाश मार्ग को कहते हैं। सदियों से इन्हीं फ्लाइवेज के जरिए विदेशों से बर्ड एक देश से दूसरे देशों में माइग्रेट करते रहे हैं। अमेरिका में बर्ड के सौ फीसदी फ्लाइवेज मैप हैं। यूरोप में अस्सी फीसदी फ्लाइवेज मैप हैं। लेकिन भारत में अभी तक सिर्फ चार फ्लाइवेज ही मैप किए गए हैं। चांद-तारे, सूर्य को देखकर तय करते हैं सफर ये परिंदे अपना रूट सूर्य और चांद-तारों की स्थिति देखकर तय करते हैं। पर्वत, नदी, वन, झीलों के जरिए जगहों को पहचानते हैं। उड़ान भरने से पहले ही शरीर में पर्याप्त वसा जमा कर लेते हैं। सफर के दौरान कुछ नहीं खाते। कुछ परिंदे रात को तो कुछ दिन में उड़ते हैं। 40 फीसदी रास्ते में हो जाते हैं शिकार
40 फीसदी परिंदे सफर में तूफान, बारिश, कड़ी धूप और परभक्षी जानवरों का शिकार बन जाते हैं। बहुत से पक्षी
ऊंची इमारतों, मोबाइल टावर और प्लेन आदि की भी चपेट में आकर मर जाते हैं। बहुत से पक्षी यहां आने पर बाज और दूसरे जानवरों का भी शिकार बन जाते हैं। सबसे उम्रदराज पक्षी करता है नेतृत्व पक्षियों के हर झुंड में सबसे उम्रदराज पक्षी उड़ान का नेतृत्व करते हैं। ये वे पक्षी होते हैं जो पहले सफर कर चुके होते हैं। जो युवा पक्षी होते हैं उनको यहां आने से कई महीने पहले तक यी पक्षी ट्रेंड करते हैं। जो ट्रेंड नहीं हो पाते हैं, वे बीच सफर में ही दम तोड़ देते हैं। क्षेत्र को संरक्षित नहीं किया तो घट जाएंगे विदेशी मेहमान वरिष्ठ पक्षी वैज्ञानिक डॉ. रजत भार्गव बताते हैं कि विदेश से आने वाले पक्षियों की संख्या 9 से 10 हजार है। यहां पर इनको खाने के लिए कीड़े-मकौड़े, मछली, केंचुए और अनाज के दाने भरपूर मात्रा में मिलते हैं। ऐसे में यहां आते हैं। डॉ. रजत भार्गव बताते हैं कि वेटलेंड में इंसानी दखल के चलते माहौल खराब हो रहा है। जलकुंभी जगह-जगह फैल गई है। जलकुंभी में पक्षी फंस जाते हैं। सरकारी सरंक्षित भूमि बहुत कम रह गई है। ऐसे में सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में पक्षियों की संख्या घट जाएगी। डीएफओ मेरठ राजेश कुमार बताते हैं कि हस्तिनापुर में बड़ी संख्या में विदेशी पक्षी आए हुए हैं। इनकी सुरक्षा को लेकर टीम लगाई गई है। सभी लोग इन विदेशी मेहमानों का स्वागत करें। प्रकृति का आनंद उठाएं।

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