रेव्ह. इमिल शत्स, रेव्ह फ्रेडिक वच, रेव्ह. औगुस्त ब्रंत व रेव्ह थेयोदोर यानके कोलकाता के बाइबल सोसाइटी के अहाते में रुके थे। वे जर्मनी के रहने वाले थे और 10 जुलाई 1844 को बर्लिन के बेथलेहम गिरजाघर से बर्मा के मेरगुई में कारेन जातियों के बीच सुसमाचार प्रचार के लिए निकले थे। उसी समय बर्मा में अमेरिकन बमतिस्म चर्च काम शुरू कर दिया था वे उत्तरी भारत में हिमालय की तराई में जाना चाहते थे, लेकिन वहां अंग्रेजों व सिखों के बीच लड़ाई छिड़ गई। आखिर उन्हें कोलकाता में रुकना पड़ा। वहां प्रार्थना करते हुए ईश्वर की अगुवाई का इंतजार कर रहे थे। कोलकाता में झारखंड के आदिवासी रेजा-कुली का काम करते थे। चारों ने झारखंड के लोगों के सरल स्वभाव, व्यवहार और परिस्थिति जानकर छोटानागपुर में सुसमाचार प्रचार के लिए तैयार हो गए। 25 फरवरी 1845 को वे कोलकाता से बैलगाड़ी द्वारा रांची के लिए निकल पड़े। 1946 में मार्था नाम की लड़की का हुआ पहला बपतिस्मा पहली बार 25 जून 1846 को एक बालिका का बपतिस्मा हुआ, जिसका नाम मार्था रखा गया। फिर 26 जून 1846 को 5 अन्य बच्चों का बपतिस्मा हुआ। 9 जून 1850 को उरांव समुदाय के 4 व्यक्तियों के साथ 7 बच्चों का बपतिस्मा हुआ। 26 अक्टूबर 1851 को दो मुंडा भाइयों, 1 अक्टूबर 1855 को 9 बंगाली, 22 जून 1864 को को संथाली, 8 जून 1866 को 2 खडि़या बंधु और 10 मई 1868 को पहला हो समुदाय के परिवार के बपतिस्मा के बाद कलीसिया की संख्या बढ़ने लगी। डोम्बा (1847), लोहरदगा (1848), गोविंदपुर (1850), चाईबासा (1864) आदि में मंडलियां भी स्थापित की गईं। पहला जीईएल चर्च की नींव 18 नवंबर 1851 को डाली गई। 24 दिसंबर 1855 को यह बन कर तैयार हुआ। सन 1857 में सिपाही विद्रोह के समय जीईएल चर्च पर 4 गोले दागे गए। आज भी इसके निशान चर्च के ऊपरी भाग में मौजूद हैं। 2 नवंबर 1845 में मिशनरी रांची पहुंचे, 25 जून 1846 को बालिका मार्था का कराया पहली बार बपतिस्मा जीईएल चर्च में स्थापित क्रूस के नीचे एक खुली हुई बाइबल रखी हुई है। लुथेरान कलीशिया की 16वीं शताब्दी में स्थापना के बाद से यह प्रथा है कि गिरजाघर में क्रूश के नीचे बाइबल रखी जाए। इसे रखने के पीछे मान्यता है कि हर लोग इसे पढ़ें। बांकुड़ा में महीनों रहकर हिंदी सीखी, फिर धर्म का प्रचार करना शुरू किया कोलकाता से रांची आने के क्रम में वे डॉ. चेक के यहां रुके। उन्हें पता चला कि छोटानागपुर में कई भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन आमतौर पर सभी हिंदी समझते हैं। चारों महीनों बांकुड़ा में रहकर हिंदी का अध्ययन किया फिर 2 नवंबर 1845 को रांची पहुंचे। यहां आकर सुसमाचार प्रचार के साथ शिक्षा व स्वास्थ्य के माध्यम से लोगों के बीच सेवा का काम शुरू किया। 1 दिसंबर 1845 को बेथेसदा मिशन स्टेशन में पहला उपासनालय बनाकर प्रार्थना की। भारत में अंग्रेज-सिखों के बीच हिमालय की तराई में लड़ाई छिड़ने पर कोलकाता में डाला था डेरा