केस लड़ते हो गई मौत, 26 साल बाद मिला न्याय:रिश्वत लेने के आरोप पर मिली थी सजा, टीआई पति की मौत के बाद पत्नी ने लड़ा केस

रिश्वत लेने के आरोप में फंसे एक थानेदार की केस लड़ते-लड़ते मौत हो गई। करीब 26 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद दिवंगत थाना प्रभारी को अब जाकर हाईकोर्ट से राहत मिली है। हाईकोर्ट के जस्टिस संजय अग्रवाल ने ट्रायल कोर्ट की सजा को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने माना है कि जिस रिश्वत की मांग की बात की गई, उसका कोई औचित्य नहीं बनता, क्योंकि शिकायतकर्ता और उसके परिजन को पहले ही जमानत पर रिहा कर दिया गया था। फिर दो दिन बाद उसी जमानत की एवज में पैसे की मांग करने का आरोप असंभव लगता है। मामला बसना थाने का है। दरअलस, ग्राम थुरीकोना निवासी जैतराम साहू ने सहनीराम, नकुल और भीमलाल साहू के खिलाफ मारपीट की शिकायत दर्ज कराई गई थी। जिस पर बसना थाना में 8 अप्रैल 1990 में एफआईआर की गई थी। जिसमें तत्कालीन थाना प्रभारी गणेशराम शेंडे ने कार्रवाई की थी। चूंकि, मामला आईपीसी की धारा 324 के तहत जमानती था, इस वजह से तीनों आरोपियों को उसी दिन मुचलके पर रिहा कर दिया गया। लेकिन, इसके दो दिन बाद 10 अप्रैल 1990 को,एक आरोपी भीमलाल साहू ने रायपुर के लोकायुक्त एसपी को शिकायत की, जिसमें उसने बताया कि उसे रिहा करने के बदले में एक हजार रुपए रिश्वत मांगी गई थी। इस शिकायत के आधार पर लोकायुक्त की टीम ने रेड की जिसमें थाना प्रभारी शेंडे को रंगे हाथों पकड़ा गया। भ्रष्टाचार के केस में ट्रायल कोर्ट ने सुनाई सजा
इस कार्रवाई के दौरान थाना प्रभारी पर केस दर्ज किया गया। साथ ही उन्हें गिरफ्तार कोर्ट में पेश किया गया। लोकायुक्त ने साल 1999 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13(1)(D) के साथ धारा 13(2) के तहत चालान पेश किया, जिस पर कोर्ट ने थाना प्रभारी को दोषी ठहराते हुए तीन साल कैद और दो हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई थी। इसके खिलाफ शेंडे ने हाईकोर्ट में अपील की थी। अपील लंबित रहते ही उनकी मौत हो गई। जिसके बाद उनकी पत्नी ने अपने पति का केस लड़ा। हाईकोर्ट ने कहा- रिश्वत का औचित्य नहीं बनता
हाईकोर्ट ने दस्तावेजों और गवाहों के बयानों के आधार पर पाया कि जिस रिश्वत की मांग की बात की गई, उसका कोई औचित्य नहीं बनता, क्योंकि शिकायतकर्ता और उसके परिजन को पहले ही 8 अप्रैल को शाम 5 बजे जमानत पर रिहा कर दिया गया था। तथ्यों के अनुसार दो दिन बाद 10 अप्रैल को उसी जमानत की एवज में पैसे की मांग करने का आरोप असंभव लगता है। थाना प्रभारी से नाराज होने पर की थी शिकायत
मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की तरफ से कोट को बताया गया कि शिकायत करने वाले भीमलाल साहू ने भी मामले में दूसरे पक्ष के खिलाफ शिकायत की थी, जिस पर कार्रवाई नहीं होने के कारण वो थाना प्रभारी शेंडे से नाराज था। तर्कों को सुनने के बाद हाईकोर्ट ने ऐसे में ट्रैप की परिस्थितियों को संदेहास्पद मानी। कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग साबित करने में असफल रहा और ट्रैप में जब्त राशि का कोई वैधानिक आधार नहीं था। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने स्पेशल कोर्ट द्वारा वर्ष 1999 में दी गई तीन साल के कठोर कारावास और जुर्माने की सजा को निरस्त कर दिया है।

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