उपचुनाव बड़े नेताओं के लिए अपनी लोकप्रियता और पार्टी की ताकत साबित करने का अवसर होते हैं। कई बार उनके पारिवारिक सदस्य भी इसमें हिस्सा लेते हैं ताकि सीट पर अपना प्रभाव कायम रख सकें। सत्तारूढ़ दल के लिए यह चुनाव चुनौतीपूर्ण होते हैं क्योंकि जनता इन्हें ‘मिड-टर्म रेफरेंडम’ मानती है। 2024 के उपचुनाव में पंजाब की सियासत में ‘आप’ की बढ़ती ताकत का प्रदर्शन हुआ था। कांग्रेस और भाजपा को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है। पंजाब में कई बार सरकारें बना चुका शिरोमणि अकाली दल (शिअद) पता नहीं कहां गुम है। लुधियाना चुनाव आप के लिए उसके भविष्य का संकेत हो सकता है। अतीत के पन्नों में उपचुनाव की बात करने से पहले एक मध्यावधि चुनाव की बात होनी चाहिए। कैसे उस चुनाव ने बड़े नेताओं के भविष्य पर असर डाला था। 1967 के विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। शिअद ने गुरनाम सिंह के नेतृत्व में जनसंघ और विरोधी पार्टियों से मिलकर पीपुल्स यूनाइटेड फ्रंट बनाया और सरकार बनाई थी। इसमें लक्षमण सिंह गिल मंत्री थे। अकाली नेता संत फतेह सिंह और गुरनाम सिंह के बीच अंदरूनी कलह के कारण सरकार अस्थिर थी। 22 नवंबर 1967 को गिल 16 विधायकों के साथ अकाली दल से अलग हो गए। इसके बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन से 25 नवंबर 1967 को अल्पसंख्यक सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने। हालांकि कांग्रेस ने 21 अगस्त 1968 को समर्थन वापस ले लिया। उनकी सरकार गिर गई और 23 अगस्त 1968 को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। 1969 के मध्यावधि चुनाव में जस्टिस गुरनाम सिंह की अगुवाई में सरकार बनी पर अकाली दल के अंदर सब ठीक नहीं था। 1967 में गिद्दड़बाहा से चुनाव हारे परकाश सिंह बादल ने अकाली दल की टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा। यह निर्णय उनकी पंजाब की क्षेत्रीय राजनीति में मजबूत पकड़ बनाने की रणनीति का हिस्सा था और 1970 में वह पहली बार पंजाब के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। उन्होंने शिअद और जनसंघ की गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया। देश के किसी राज्य के सबसे कम उम्र (43 साल) के मुख्यमंत्री बने। 27 मार्च 1970 से 14 जून 1971 तक बतौर सीएम पंजाब की कमान संभाली। कहा जा सकता है कि 5 बार पंजाब का मुख्यमंत्री बनने का उनका सफर यहीं से शुरू हुआ था। यही वह समय था जब क्षेत्रीय दलों और गठबंधन की राजनीति का बढ़ता असर देखा गया। उपचुनाव के रंगों की बात करें तो परकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल का सियासी सफर भी ऐसे ही एक चुनाव से शुरू हुआ। 1995 में गिदड़बाहा विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस विधायक रघुबीर सिंह को आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद अयोग्य करार दिया गया। चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के मनप्रीत सिंह बादल ने कांग्रेस के दीपक कुमार को हराया। परिवारवाद की बात करें तो 2014 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने विधानसभा से त्यागपत्र देकर अमृतसर से लोकसभा का चुनाव लड़ा। पटियाला सीट खाली हो गई। उपचुनाव में उनकी प|ी परनीत कौर ने सीट जीतकर अपने परिवार में ही रखी। वैसे यह उपचुनाव पंजाब कांग्रेस प्रधान और सांसद राजा वड़िंग की प|ी अमृता वड़िंग और पूर्व उपमुख्यमंत्री व सांसद सुखजिंदर सिंह रंधावा की प|ी, जतिंदर कौर रंधावा के लिए कोई बेहतर अनुभव नहीं था।