‘पारम्परिक चित्रकलाओं को शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल करने की जरूरत’:जेकेके में रंगरीत कला महोत्सव में वरिष्ठ कला गुरुओं ने किया पारंपरिक कला की वर्तमान दशा और दिशा पर मंथन

जवाहर कला केन्द्र की ओर से आयोजित किए किए जा रहे ‘रंगरीत कला महोत्सव’ का तीसरा दिन कलाकारों के वैचारिक आदान-प्रदान के नाम रहा। इस मौके पर ‘पारंपरिक कला की वर्तमान दशा और दिशा’ विषय पर महत्वपूर्ण परिचर्चा हुई। इसमें वरिष्ठ कला गुरु समदर सिंह खंगारोत ‘सागर’, उदयपुर के शैल चोयल, जयपुर के वैदिक चित्रकार रामू रामदेव, बीकानेर के महावीर स्वामी और जयपुर के वीरेन्द्र बन्नू ने अपने विचार व्यक्त किए। इन कलाकारों की मान्यता थी कि राजस्थान की पारंपरिक चित्रकलाएं भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण अंग रही है। यहां की फड़ चित्रकला, भित्ति चित्रकला, पिछवाई, लघु चित्रण की मेवाड़, मारवाड़, बूंदी, कोटा, जयपुर और बीकानेर शैलियां न केवल हमारी सांस्कृतिक पहचान को अभिव्यक्त करती हैं बल्कि समाज के इतिहास, रीति-रिवाजों और मान्यताओं को भी चित्रों के माध्यम से जीवंत रखती हैं। किंतु वर्तमान समय में आधुनिक तकनीक, डिजिटल माध्यमों और बदलते जीवनशैली के कारण पारम्परिक चित्रकला संकट के दौर से गुजर रही है। आज की पीढ़ी का इस ओर झुकाव कम हो रहा है, और इन कलाओं से जुड़े कलाकारों की आजीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पाठ्यक्रम में शामिल हो पारम्परिक चित्रकलाएं – रामू रामदेव वैदिक चित्रकार रामू रामदेव ने कहा कि पारम्परिक चित्रकलाओं को औपचारिक शिक्षा पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम रोजगार उन्मुख हो जिससे राजस्थान की पारम्परिक चित्रकलाओं पर आधारित डिजाइन, फैशन, पर्यटन, संग्रहालय प्रबंधन, कला विपणन आदि से जुड़े कौशल भी विकसित किए जाएं। विद्यालयों और महाविद्यालयों में इन कलाओं का शैक्षणिक अध्ययन कराया जाए, ताकि विद्यार्थियों में इनके प्रति रुचि जागृत हो और वे न केवल इसे कला के रूप में समझें बल्कि इसे सम्भावित करियर विकल्प के रूप में भी देखें। यदि पारम्परिक चित्रकला से जुड़े युवाओं को स्वरोजगार एवं उद्यमिता के अवसर उपलब्ध कराए जाएं, तो न केवल इस अमूल्य धरोहर का संरक्षण होगा, बल्कि ग्रामीण एवं शहरी युवाओं को भी सम्मानजनक आजीविका मिल सकेगी। बीकानेर के कला गुरु महावीर स्वामी ने कहा कि वर्तमान समय पारम्परिक चित्रकला के लिए संक्रमण काल का दौर है। यह वह समय है जब एक ओर हमारे पुराने, अनुभवी चित्रकार हमसे विदा ले चुके हैं और दूसरी ओर अनेक कलाकारों ने परिस्थितियों से निराश होकर इस विधा से मुँह मोड़ लिया है। आधुनिक तकनीक, बदलते बाजार और आजीविका की चुनौतियों ने भी पारम्परिक चित्रकला को पीछे धकेल दिया है। इसके अतिरिक्त युवा पीढ़ी का इस कला में घटता रुझान भी चिंता का विषय है। ऐसे में ‘रंगरीत कला महोत्सव’ जैसा आयोजन अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस महोत्सव की विशेषता यह है कि इसमें पारम्परिक चित्रकला की तीन पीढ़ियों को एक मंच पर एकत्रित किया जा रहा है। वरिष्ठ चित्रकार, मध्य पीढ़ी के कलाकार और उदीयमान युवा। यह आयोजन न केवल ज्ञान, तकनीक और अनुभव का आदान-प्रदान सुनिश्चित करेगा, बल्कि नई पीढ़ी को इस दिशा में प्रेरित और ऊर्जावान बनाने का सशक्त माध्यम भी बनेगा। वरिष्ठ चित्रकारों के मार्गदर्शन और अनुभव से युवा कलाकारों को अपनी जड़ों को समझने का अवसर मिलेगा, साथ ही वे सीखेंगे कि किस प्रकार पारम्परिक शैली को समकालीन संदर्भ में पुनः प्रासंगिक और जीवंत बनाया जा सकता है। कला गुरु समदर सिंह खंगारोत ‘सागर’ ने कहा कि रंगरीत कला महोत्सव जैसे मंच युवा प्रतिभाओं को अपने कौशल के प्रदर्शन, संवाद और नवाचार के अवसर भी उपलब्ध कराते हैं। इससे न केवल पारम्परिक चित्रकला का संरक्षण और संवर्धन संभव होगा, बल्कि इस विधा से जुड़े कलाकारों के लिए नए रोजगार और स्वरोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। इस तरह के आयोजनों से समाज में पारम्परिक कला के प्रति जागरूकता बढ़ेगी और यह कला फिर से जनमानस में स्थान बना सकेगी। अतः यह कहा जा सकता है कि रंगरीत कला महोत्सव पारम्परिक चित्रकला को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है और विशेष रूप से नई पीढ़ी के लिए यह ऊर्जा और प्रेरणा का स्रोत बनेगा।

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