नमस्कार वंदे मातरम के 150 साल पर देशभर में जश्न मनाया जा रहा है। लेकिन वंदे मातरम के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का नाम बोलने में केंद्रीय मंत्रीजी की जीभ लड़खड़ा गई। घूंघट पर राजस्थान के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के विचार पूरी तरह अलग हैं। राजस्थान पुलिस ने फरमान निकाला कि आरोपियों के पकड़ने के बाद पुलिसवाले चेहरा दिखाते हुए फोटो न खिंचाएं। कोटा वाले पुलिसकर्मियों ने इसका तोड़ निकाल लिया। राजस्थान की राजनीति और ब्यूरोक्रेसी की ऐसी ही खरी-खरी बातें पढ़िए, आज के इस एपिसोड में… 1. बंकिम बाबू पर टंग ट्विस्ट… आजादी की राह आसान नहीं रही। लोगों ने गोलियां खाईं। गालियां खाईं। कोड़ों से पीठ छलनी करवाई। आजादी के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया, तब आजादी मिली। आजादी में उन महान कवियों-लेखकों का भी बड़ा योगदान रहा, जिन्होंने प्रतिबंध झेले। छुपकर छपाई की। भारत माता की आन-बान शान के लिए लिखा। बंगाल के महान कवि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत लिखा। बाद में यही आजादी का नारा बन गया। वंदे मातरम गाने वालों ने बहुत जुल्म सहे। फिर भी वंदे मातरम बोला-गाया। नरम दल हो या नरम दल। वंदे मातरम सभी के मन की आवाज बना और फंदे चूमकर लटकने से पहले भी वीरों ने वंदे मातरम ही गाया। संसद में वंदे मातरम का यशोगान करने के लिए उठे केंद्रीय मंत्रीजी के मन में इसी तरह के विचार हिलोरे मार रहे थे। भावना बेकाबू हो रही थी। रोम-रोम गदगद था। देशभक्ति उबल रही थी। मंत्रीजी ने बोलना शुरू किया। लेकिन वंदे मातरम के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के नाम पर ही मामला अटक गया। भावावेग ऐसा कि बंकिम दास निकला, बंकिम चटर्जी निकला, बंकिम बाबू तक निकल गया। लेकिन मुंह से सही तरीके से बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय नहीं निकल पाया। किसी ने सच ही कहा है, आजादी की राह चलने के लिए ही नहीं, बोलने के लिए आसान नहीं है। 2. घूंघट पर अलग-अलग विचार राजस्थान और घूंघट का अजीब सा रिश्ता है। मॉर्डनिस्ट को लगता है कि यह बुर्जुआ प्रथा है। पुरानी और शर्मनाक है। इसे खत्म हो जाना चाहिए। फेमिनिस्ट मानते हैं यह नारी को दबाने की परंपरा है। पुरुष प्रधान समाज का बुरा चेहरा है। निओ-कंजरवेटिव को लगता है कि घूंघट को हमेशा के लिए दफ्न कर देना चाहिए। चेहरा पहचान है। चेहरा छुपाना महिला का अपमान है। क्लासिस्ट को लगता है कि यह एक परंपरा है। परंपरा हर तरह से खूबसूरत होती है। यह हमारी पहचान है। घूंघट को लेकर भिन्न-भिन्न मत हैं। हाल ही में बालोतरा में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे ने घूंघट को लेकर अपनी राय रख दी। वे एक समाज के कार्यक्रम में गई थीं। घूंघट ओढ़े एक महिला ने फूलमाला देकर उनका स्वागत किया। पूर्व सीएम को पता चला कि घूंघट वाली महिला चार्टर्ड अकाउंटेंट यानी CA है। इसके बाद घूंघट वाली दूसरी महिला ने अंग्रेजी में फर्राटेदार भाषण दिया। इन घटनाओं ने पूर्व सीएम को इंप्रेस किया। उन्होंने समाज को बधाई देते हुए कहा कि वेशभूषा हमारे कल्चर को दिखाती है, जो दूसरों से अलग है। आपने इस पहचान को बनाए रखा, यह तारीफ करने लायक है। हालांकि पूर्व सीएम अशोक गहलोत ने भी मुख्यमंत्री रहते घूंघट पर बात की थी। उन्होंने कहा था कि घूंघट कुप्रथा है। इसे हटा देना चाहिए। चूंकि उन्होंने सिर्फ एक वर्ग के ढके चेहरे वाली महिलाओं की बात की, इसलिए उनकी बात आंदोलन नहीं बन सकी। 3. मेहनत की है तो दिखना बनता है जब आप कुछ हासिल करते हैं तो चाहते हैं कि दुनिया आपका चेहरा देखे। याद रखे और आपकी बात करे। हालांकि इस तरह के विचार कुछ बड़ा काम करने के बाद आने चाहिए। पुलिस का हर काम बड़ा है। इसलिए जरूरी नहीं कि दस ग्राम गांजे के साथ पकड़े गए नशेड़ी को उकड़ू बैठाकर चार पुलिसवाले उसके पीछे चौकड़ी मारकर खड़े जो जाएं और फोटो खिंचवाएं। पुलिसवालों को लगता होगा कि अखबारों में जितनी उनकी फोटो दिखेगी, जितना उनका नाम छपेगा, प्रमोशन की राह उतनी ही आसान हो जाएगी। यह सोच गलत भी नहीं है। लेकिन पता नहीं राजस्थान पुलिस के बड़े अफसरों को क्या सूझी कि आरोपियों को दबोचने के बाद उनके साथ चेहरा दिखाते हुए फोटो खिंचवाने से पुलिसवालों को पाबंद कर दिया। बाकी पुलिसवाले तो समझ गए, लेकिन कोटा की रेलवे कॉलोनी पुलिस थाने के कुछ जवान वाकई होशियार निकले। उन्होंने सोचा- चेहरा ही तो नहीं दिखाना है, नहीं दिखाएंगे। पीठ दिखाकर खड़े हो जाएंगे। फिर वे तीन ‘लुच्चों’ को दबोचने के बाद पीठ दिखाकर खड़े हो गए। वैसे घूंघट भी एक विकल्प हो सकता था, लेकिन उस पर वाद-विवाद का दौर जारी है। 4. चलते-चलते आपदा में अवसर अब अबूझ पहेली नहीं रही है। कोरोना के वक्त इस महान ध्येय वाक्य का आविष्कार हुआ था। पांच साल में अब बच्चा-बच्चा समझता है कि आपदा में अवसर किस चिड़िया का नाम है। आपदा कभी भी, किसी भी वक्त, किसी भी गली, किसी भी दिशा, किसी भी दशा में आ सकती है। नरसिंह भगवान की तरह यह खंभा फाड़कर भी प्रकट हो सकती है। इसलिए जरूरी है कि आपदा को पहचाना जाए और जैसे ही वह हाथ लगे, उसे अवसर में तब्दील कर दिया जाए। कोटा से झालावाड़ जाते वक्त आपदा संतरे से भरा ट्रक लेकर आई और उसे दर्रा घाटी में पलट दिया। जंगल में आग जिस गति से फैलती है, उससे आठ गुना ज्यादा तेज गति से दर्रा घाटी के नजदीकी गांवों में यह सूचना फैल गई कि आपदा एक सुनहरे अवसर में बदल चुकी है। लोग कट्टे, बोरियां और गाड़ियां लेकर मौके पर पहुंच गए। आपदा वाले अवसर में विजेता वही होता है, जिसके हाथ जल्दी चलते हैं। लोगों ने तेज गति से बोरियों में संतरे भरने शुरू किए। आपदा में समझदार वही है, जो अपने अवसर को जल्दी से जल्दी सुरक्षित कर ले। ऐसे में भरे हुए कट्टे बाइकों पर रखकर लोगों ने अपने घरों में पहुंचा दिए और नए खाली कट्टे लेकर मौके पर लौट आए। इस दौरान कुछ उद्यमी सोच के ग्रामीणों ने हाईवे पर ही संतरों की दुकान सजा ली और बाजार शुरू कर दिया। वीडियो देखने के लिए ऊपर फोटो पर क्लिक करें। अब कल मुलाकात होगी…


