इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दुष्कर्म और अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम, 1989 के तहत अपराधों के आरोपों से जुड़ी प्राथमिकी में दो आरोपियों को जमानत देते हुए कहा है कि इस विशेष कानून के तहत पीड़ित अधिकारों का “दुरुपयोग नहीं कर सकता। न्यायमूर्ति अनिल कुमार (दशम) की पीठ ने अपीलार्थी अजनान खान और फुरकान इलाही को जमानत देते हुए इस बात को ध्यान में रखा कि मुख्य रूप से प्राथमिकी दर्ज करने में नौ साल की अस्पष्ट देरी हुई जबकि पीड़िता स्वयं अधिवक्ता है। मुकदमे से जुड़ा तथ्य यह है कि पीड़िता ने इसी साल बुलंदशहर की देहात कोतवाली में एफआइआर दर्ज कराई। इसमें आरोप लगाया था कि 2016 में फुरकान उससे मिला, उसे एक होटल में ले गया और बाद में अपने दोस्त अजनान खान (सह-अभियुक्त) के घर ले गया। जब अजनान ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया तो फुरकान ने उससे दुष्कर्म किया। वह इसलिए चुप रही क्योंकि मुख्य आरोपित ने उसे शादी का आश्वासन दिया था। मुख्य आरोपित ने शारीरिक संबंध बनाना जारी रखा और उसे नशीली गोलियां खिलाई, इससे उसका गर्भ गिर गया। विशेष अदालत द्वारा जमानत अर्जी खारिज किए जाने के बाद अपीलार्थियों ने हाईकोर्ट का रुख किया था। उनके अधिवक्ताओं ने कहा कि प्राथमिकी नौ साल की भारी देरी के बाद दर्ज की गई थी, जो यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि मामला “कानूनी परामर्श” के बाद दर्ज किया गया था। प्राथमिकी में नामित 18 आरोपियों में चार वकील हैं। पीड़िता भी वकील है और उसका “लंबा आपराधिक इतिहास” है। उसने कई अन्य के खिलाफ मामले दर्ज कराए हैं। दुष्कर्म की प्राथमिकी पेशबंदी है क्योंकि एक अपीलार्थी ने अगस्त में पीड़िता के खिलाफ पहले ही प्राथमिकी दर्ज करा दी थी। महज 20 दिन बाद ही उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर दी गई। सरकारी वकील ने पीड़िता और गवाह इसरार खान के साथ कहा कि प्राथमिकी में देरी शादी के ‘झूठे वादे’ के कारण हुई। यह भी कहना था कि अभियुक्त उसे अभियोजन पक्ष से हटने की धमकी दे रहे थे। उच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान पीड़िता के आचरण पर विशेष ध्यान दिया। आदेश में उल्लेखित है कि पीड़िता गवाह (एक वकील) के साथ अदालत में पेश हुई और उसने पूरी कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग की मांग की। अदालत कक्ष में अन्य वकीलों की मौजूदगी पर भी आपत्ति जताई। कहा कि ऐसे “संवेदनशील मामले” की कार्यवाही उनकी मौजूदगी में नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब दोपहर तीन बजे मामले की सुनवाई शुरू हुई तो पीड़िता ने दलील दी कि उसने अपना वकालतनामा दाखिल नहीं किया है। उसने बहस के लिए किसी अन्य वकील को नियुक्त करने के लिए समय मांगा। जब यह स्पष्ट प्रश्न उठाया गया कि क्या उसे नोटिस दिया गया था, तो उसने मौखिक रूप से इनकार कर दिया और कहा कि ऐसा कोई नोटिस प्राप्त नहीं हुआ है। सरकार के वकील ने संबंधित एसएचओ की यह रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया था कि जब वह पीड़िता के चैंबर में नोटिस देने गए तो उन्होंने उसे लेने से इनकार कर दिया। जब उन्होंने नोटिस उसके चैंबर के बाहर चिपकाने की कोशिश की तो पीड़िता और अन्य वकीलों ने इसका विरोध किया इससे ऐसा नहीं हो सका। न्यायमूर्ति ने टिप्पणी की, “अदालतें आमतौर पर पक्षकारों के आचरण पर कोई टिप्पणी करने से बचती हैं। हालांकि, इस मामले में पीड़िता का आचरण अनुचित था, यह देखते हुए कि वह स्वयं वर्ष 2013 से अधिवक्ता के रूप में कार्यरत है।”


