भास्कर न्यूज | धमतरी श्री पार्श्वनाथ जिनालय, इतवारी बाजार में चातुर्मास प्रवचन जारी है। मुनिश्री प्रशम सागर ने 6 अगस्त को प्रवचन में आत्मा की शुद्धता और जीवन की सार्थकता को बताया। उन्होंने कहा, आत्मा का स्वभाव है स्वयं में विश्वास करना। आत्मा की शरण में रहना ही उसका अनुशासन है। तत्वों की समझ से भव-भव का अज्ञान दूर होता है। आत्मा ही आत्मा की सच्ची शरण है। शरीर केवल एक पड़ाव है। जो आत्मा को भूल जाता है, वह चारों गति में भटकता है और कहीं भी सुख नहीं पाता। जो आत्मा की वास्तविकता को जान लेता है, वह संसार के भ्रमण से मुक्त हो जाता है। उन्होंने कहा, परमात्मा हमें हमारा असली स्वरूप बताते हैं और साधु जीवन जीना सिखाते हैं। जिनवाणी रूपी लोरी आत्मा को शाश्वत सुख देती है। आत्मा अजर, अमर और शुद्ध है। इसे विषय कषाय के मैल से अशुद्ध नहीं करना चाहिए। यही मानव जीवन की सार्थकता है। जब तक संसार में हैं, तब तक कोई न कोई शत्रु भी होता है, लेकिन प्रयास यह होना चाहिए कि जब संसार से जाएं, तब कोई शत्रु न हो। जिनवाणी ही ऐसा माध्यम है, जिससे शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है। जो काम शस्त्र नहीं कर सकता, वह शास्त्र कर सकता है। जिनवाणी में जीवन की सभी समस्याओं का समाधान है। बस श्रद्धा जरूरी है। धर्म ग्रंथों के प्रति बहुमान और अहोभाव होना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र का उल्लेख करते हुए कहा, हर पल जाते हुए जीवन से आत्मा के लिए कुछ अच्छा करना चाहिए। मानव जीवन पुण्य का ऋणी है। प्रमाद को दूर कर आत्मा के मार्ग को प्रशस्त करना है। मन ही आत्मा को परमात्मा बना सकता है। पहला हठाग्रह : यह वस्तु को लेकर होता है। ऐसी वस्तु जिसे पाने की इच्छा हो, लेकिन उसके बिना भी जीवन चल सकता है। यह हठबुद्धि जीवन के विनाश का कारण बनती है। हठाग्रह से मुक्त व्यक्ति का जीवन आनंदमय होता है। दूसरा कदाग्रह : यह विचारों से जुड़ा होता है। मतभेद सामान्य हैं, लेकिन ”मैं ही सही हूं” का आग्रह कदाग्रह है। यह अहंकार से उत्पन्न होता है। अहंकार सत्य को स्वीकारने नहीं देता। तीसरा पूर्वाग्रह : यह किसी व्यक्ति या जीव के प्रति होता है। विचारों का आग्रह पूर्वाग्रह कहलाता है। विचारों को समयानुसार स्वीकार या त्यागना चाहिए। किसी के प्रति पहले से कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि समय के साथ स्वभाव बदल सकता है। धमतरी। मुनिश्री प्रशम सागर व अन्य संत।