पंजाब में 3 रंग की कपास, 20 फसलों की खेती:फसल की बर्बादी ने दिखाई जैविक राह; 3 भाइयों ने 300 महिलाओं को दिया रोजगार

अबोहर के ढींगावाली गांव के एक प्रगतिशील किसान ने अपनी सोच और मेहनत से खेती की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया। 66 वर्षीय सुरेंद्र पाल सिहाग अपने दोनों भाइयों जितेंद्रपाल सिंह सिहाग और जयपाल सिंह सिहाग के साथ मिलकर 140 एकड़ पुश्तैनी जमीन में जैविक खेती करते हैं। तीनों भाई किसान ही नहीं, बल्कि सफल उद्यमी और पर्यावरण संरक्षक भी हैं। ये तीन रंग (सफेद, हरा व खाकी) की नरमा और कपास उगाते हैं। इन्होंने एक ऐसा ईको-सिस्टम तैयार किया, जो आत्मनिर्भरता, पर्यावरण संरक्षण और ग्रामीण रोजगार का एक बेहतरीन संगम है। इन्होंने 300 महिलाओं को रोजगार दे रखा है। सुरेंद्र पाल सिहाग बताते हैं कि वर्ष 1996 में अबोहर इलाके के सभी किसानों की नरमे और कपास की फसल बर्बाद हो गई थी। उस समय अपनी फसलों को बचाने के लिए कई कीटनाशकों का इस्तेमाल किया, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इस घटना ने उनको सोचने पर मजबूर कर दिया कि रासायनिक खेती का भविष्य नहीं है। परिवार में बचपन से ही बिना केमिकल की सब्जियां खाने की परंपरा थी, जिसने उन्हें जैविक खेती की ओर प्रेरित किया। खैर, यह घटना जैविक खेती और स्वदेशी उद्यम का प्रतीक बन गई। वे 140 एकड़ में 20 प्रकार की फसलों (गेहूं, सरसों, चना, नरमा, धान, कई तरह की दालें इत्यादि), सब्जियों के साथ-साथ तीन रंग के नरमे और कपास की खेती कर रहे हैं। उनके पास देसी नस्ल की 150 गायें हैं, जिनका दूध, घी और मक्खन परिवार के लोग तथा परिचित इस्तेमाल करते हैं। वह मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी पहचान तीन रंगों की कपास है। देश में ऐसे बहुत कम किसान होंगे, जो अलग-अलग रंग के नरमे और कपास की खेती करते हैं। रंगीन नरमा-कपास की खेती ने उन्हें एक अनूठा रास्ता दिखाया है। वह इस कपास से सीधे कपड़ा तैयार करवाते हैं, जिससे कपड़े को रंगने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसके लिए उन्होंने 300 ग्रामीण महिलाओं को रोजगार दिया है, जो चरखे पर सूत कातकर घर बैठकर धागा बनाती हैं। अब वह अपनी पैदावार से कपड़ा तैयार करवा रहे हैं, जिससे उनको लाखों की आमदनी भी होती है। बताते हैं कि देश के सरकारी रिसर्च सेंटर रंगीन कपास के बीज नहीं उपलब्ध कराते हैं। उन्होंने हरे रंग का बीज ऑस्ट्रेलिया से बमुश्किल मंगवाया। सरकार के पास जो बीज हैं, उनकी कीमतें इतनी ज्यादा हैं कि उन्हें सिर्फ बड़े कॉर्पोरेट घराने ही खरीद सकते हैं। उनके अनुसार, वर्ष 2005 में उन्होंने अपनी जमीन को पूरी तरह से जैविक बनाने की ठान ली और ऑर्गेनिक खेती के लिए एपीडा (एपीईडीए) से सर्टिफिकेशन के लिए आवेदन किया। जब वह अपनी फसल को पंजाब से बाहर बेचने के लिए लेकर गए तो सभी कंपनियों ने इसके प्रमाणीकृत होने का सबूत मांगा। ऐसे में तब उनको प्रमाणीकृत बनाने की प्रक्रिया के बारे में मालूम पड़ा। एक साल बाद 2006 में पहला ऑडिट हुआ और कुछ समय बाद उनको जैविक खेती करने का प्रमाणपत्र मिल गया। वह छोटे किसानों को सलाह देते हैं कि एक ही फसल पर निर्भर न रहें, बल्कि विभिन्न फसलें उगाएं। इससे जोखिम कम होता है और आमदनी बढ़ती है।

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